Ashtanga Yoga In Hindi महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अस्टांग योग कोई धार्मिक सम्प्रदाय या पंथ नहीं है बल्कि यह जीवन की सम्पूर्णता है। इस योग का पालन कर जीवन और राष्ट्र में शांति स्थापित की जा सकती है क्योंकि यह अध्यात्म, विज्ञानं, मानवता और धर्म के क्षेत्र में खरा उतरा है। आइये जाने अष्टांग योग के महत्व अंगो के बारे में विस्तार से -
जीवन में व्यक्ति जो कुछ भी करता है उसका एकमात्र लक्ष्य शांति और सुख पाना होता है और इसके लिए वह कई बार अन्धविशवसो और झूठे आडम्बरो में भी फस जाता है। सुख पाने के लिए जो भी प्रयत्न किये जाते है उसमे सार्थकता के साथ परिपूर्णता, व्यापकता व समग्रता भी होनी चाहिए। यह सभी कुछ अष्टांग योग(ashtang yog) के दवारा संभव हो सकता है।
अष्टांग योग का महत्व - Importance Of Ashtanga Yoga In Hindi
अष्टांग योग के द्वारा व्यक्ति न केवल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होता है बल्कि उसके भीतर का अंधकार, नकारात्मकता, अविद्या दूर होती है। जैस-जैसे इसका अभ्यास होता जायेगा, आत्मज्ञान का प्राप्ति होती जाएगी और चित्त प्रकाशमान होने लगेगा।
अष्टांग योग कैसे कर सकते है ?
अष्टांग योग करने के लिए व्यक्ति को पहले इसके सभी अंगो को समझना होगा। इसके बिना आप अष्टांग योग नहीं कर सकते है क्योंकि यह सिर्फ एक योग नहीं है बल्कि जीवन का सार है।
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अष्टांग योग के अंग क्या है ?
अष्टांग योग में - यम, नियम, ध्यान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और समाधि यह आठ अंग शामिल है। इन सभी का पालन करने वाला ही स्वयं को योगी कह सकता है। आईये इन सभी के बारे में विस्तार से जाने -
यम
यम अस्टांग का पहला अंग है जिसका अर्थ है कि अपने मन और इन्द्रियों को हिंसा व किसी भी प्रकार के अशुभ भावो से विरक्त कर आत्मकेंद्रित हो जाये। यह नैतिकता, संयम और अनुशासन को संदर्भित करता है। पांच प्रकार के यम है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह।
योग सिर्फ शरीर के लिए नहीं अपितु सत्यनिष्ठ होकर अपनी ऊर्जा को सही दिशा में उपयोग करना सीखना है, जिससे आपको लाभ होने के साथ ही दुसरो का भी हित हो। व्यक्ति को इन पांचो यम को अपने अंदर समाहित करने का प्रयास करना चाहिए।
नियम
नियम अस्टांग का दूसरा मुख्य अंग है। इसके अंतर्गत पांच तरह के नियम संतोष, शौंच, स्वाध्याय और तप शामिल है।
शौंच यानि कि शुद्धि, महर्षि मनु ने शौंच के सबंध में बताया है कि - जल से शरीर को शुद्ध करना, सत्याचरण के से मन को शुद्ध करना, तप व विद्या द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करना चाहिए।
संतोष का अर्थ है कि आपके द्वारा किये गए कार्यो के बदले में जो भी प्रतिफल आपको मिला उससे संतोष करना। महर्षि व्यास के अनुसार - संतोष के एक ऐसा अमृत है जिसे पीने वाला व्यक्ति शांतचित हो जाता है ऐसा किसी भी धन-वैभव से नहीं प्राप्त होता है।
तप का अर्थ है कि आपके कर्त्वय पालन, लक्ष्य या उद्देश्य में जो भी अड़चने, बाधाएँ आये उन्हें सहजता से लेकर बिना विचलित हुए आगे बढ़ना है। किसी विषम परिस्थिति में भी सम रहना तप है।
स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं से अध्ध्यन करना। हमारे जो भी सत्यशास्त्र है जैसे - गीता, उपनिषद, वेद व ओंकारा का जाप आदि इनका अध्ध्यन करना चाहिए। यह आपको मोक्ष की और ले जाने में सहायता करते है। इसके साथ ही आपकी आत्मा का उद्देश्य क्या है, आपका जन्म क्यों हुआ आदि तरह के विचारो का आत्ममंथन करना भी स्वाध्याय है।
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आसन
भद्रासन हो या पद्मासन किसी भी मुद्रा में जब आप आराम से सुखपूर्वक बैठते है तो वह आसन कहलाता है। इसलिए ध्यान में लम्बे समय तक बैठने के लिए ऐसे ही किसी आसान पर बैठने प्रैक्टिस करे। जो लोग नहीं बैठ सकते है वे कुर्सी का प्रयोग कर सकते है लेकिन पैर भूमि से जुड़े रहे।
प्राणायाम
आसन के बाद प्राणायाम का नम्बर आता है जिसमे श्वास की गति पर ध्यान देना होता है। नियमित रूप से प्राणायाम करने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से मजबूत होता है। इसके लिए अनुलोम-विलोम या कपालभांति कर सकते है। इससे शरीर, इन्द्रिया, मन शुद्ध होते है।
प्रत्याहार
जब इन्द्रियों को भौतिक रस का पान नहीं कराते या उनमे रमाते नहीं है तो आपके चित्त के अनुरूप ही चलती है इसे ही प्रत्याहार कहते है। ऐसे में कोई भी व्यक्ति संसार से विमुख होकर वैराग्य को धारण करने में सक्षम हो सकता है। आसक्ति रखने वाले लोगो में भोग के प्रति प्रीति होती है, ईश्वर के प्रति नहीं। सांसारिक सुख दुखमय है ऐसा इसलिए क्योंकि यह सुख व्यक्ति को पीड़ा दिए बिना नहीं जायेंगे, ये एक दूसरे के साथी है। परन्तु उस समय हमें या अनुभव नहीं होता है। परन्तु योगी या साधक जानते है इसलिए वे प्रति आसक्त नहीं होते है।
धारणा
जब आप अपने नाभि के चक्र, ह्रदय, नासिकाग्र, जिव्हाग्र, भ्रूमध्य, मूर्धज्योति में से किसी एक साथं पर एकाग्र होता है तो वह धारणा कहलाती है। लेकिन प्रत्याहार के द्वारा जब आप इन्द्रियों को जीत लेते है तब आप ध्यान इन सारे विषयो से हटकर जीवात्मा पर लगाते है तो यह असल धारणा होती है। धारणा से ध्यान मजबूत होता है।
ध्यान
अपने नाभि में और ह्रदय के एकांत में जो ज्ञान का प्रवाह एकत्र करना ही ध्यान है। जैसे की कोई नदी का समुद्र में प्रवेश करने पर वह उसमे समा जाती है उसी प्रकार ध्यान करने से व्यक्ति सच्चिदानंदस्वरूप(परमात्मा) में एकीकार होने लगता है। ध्यान शब्द का प्रयोग हमेशा ही करते है जैसे ध्यान से चलना या पढ़ना आदि। यह जीवन का अपरिहार्य अंग है इसके बिना हम न तो आध्यात्मिक और न ही भौतिक लक्ष्य प्राप्त कर सकते है।
ध्यान करने के पहले आपको प्राणायाम यानि ब्रीथिंग करनी होती है इससे शरीर, दिमाग और मन शांत होता है। ध्यान करते समय कोई और विचार चाहे वह अच्छा हो या बुरा नहीं आने देना है यदि आता है तो उसे सिर्फ देखे लेकिन उसमे उलझे इससे वह धीरे-धीरे स्वतः ही जाने लगेगा। कुछ दिनों बाद ही ही आपके दिमाग को इसकी आदत होने लगेगी और आप आराम से कर पाएंगे।
ध्यान करते समय आपको यह मानना होगा कि आप सभी भौतिक बंधनो, जड़ चेतन से मुक्त है। आप एक आनंदमय, शांत, प्रकाशमय, भयरहित, शुद्ध परमात्मा का अंश हूँ और सच्चिदान्द स्वरुप मेरे ऊपर अमृतरूपी वर्षा कर रहे है। फल की इच्छा से रहित कर्म करना ध्यान है।
समाधी
ध्यान और समाधि में यह अंतर है कि ध्यान में आपके साथ तीन चीज़े रहती है एक जो ध्यान लगाता है, दूसरा जिसका ध्यान लगता है और तीसरा। समाधी समाधी में केवल परब्रह्मपरमेश्वर सच्चिदान्दस्वरूप का ही ध्यान करते हुए स्वयं शून्य अवस्था में ले आते है जहां आपके और उनके बीच अंतर करना मुश्किल है। पूर्ण समाहित होना समाधि है।
डिस्क्लेमर
इस लेख में अष्टांग योग के नियम और महत्व के बारे में सामान्य जानकारी प्रदान की गयी है। आप स्पिरिचुअल या आध्यात्मिक प्रैक्टिस कराने वाले किसी विशेष्ज्ञ से इसके बारे में अवश्य पूछे।